स्वामी रामतीर्थ दशनामी सम्प्रदाय के सन्यासी थे । इनके बचपन का नाम "तीर्थराम" था । द्वारिकापीठ के शंकराचार्य जी से सन्यांस की दीक्षा ली । स्वामी जी ने मात्र 32 वर्ष की आयु मे नश्वर शरीर को छोड़ दिया । वे एक महान समाज सुधारक , ओजस्वी वक्ता एव एक श्रेष्ठ लेखक थे । इनके जीवन मे स्वामी विवेकानंद का विशेष प्रभाव पडा़ । इन्होने भी स्वामी विवेकानंद की तरह युरोपीय देशो मे भारतीय दर्शन व भारतीय संस्कृति का प्रसार - प्रचार किया ।
प्रारंभिक जीवन →
महान संत राम तीर्थ जी का जन्म 1873 मे पंजाब के गुंजरावाला क्षेत्र मे हुआ । आपके पिता का नाम हिरानन्द गोस्वामी था । उनका जन्म एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण परिवार मे हुआ ।
इनका विद्यार्थी जीवन अनेक कष्टो मे बिता । इनकी माताजी का निधन बचपन मे ही हो गया था । स्वामीजी बचपन से ही कुशाग्र बुध्दी के थे । स्वामी जी बचपन से ही अन्य बालको से अलग थे जब अन्य बालक गुड्डा गुड्डी के खेल खेला करते थे तब स्वामी जी का समय चिन्तन-मनन: मे बितता था ।
स्वामी रामतीर्थ जी ने बहुत कष्टो को सहकर अपनी माध्यमिक व उच्च माध्यमिक शिक्षा अपने गाँव मे ही की । स्वामी जी का विवाह बाल्यकाल मे ही करवा दिया था । स्वामी जी उच्च शिक्षा के लिए लाहौर आ गये ।
सन् 1891 मे पंजाब विश्वविद्यालय मे B.A परीक्षा मे प्रथम आये । इस प्रतिभा के कारण उन्हे 90 रूपये की मासिक छात्रवृति भी मिली । इसी दौरान इनको स्वामी विवेकानंद का प्रवचन व सानिध्य प्राप्त हुआ । स्वामी रामतीर्थ जी उस समय पंजाब की हिन्दु महासभा से जुड़े हुये थे । इन्होने धर्म सभाओ मे अपने ओजस्वी भाषणो से हर किसी को चोंकाया ।
स्वामी रामतीर्थ जी का मन बचपन से ही आध्यात्म की तरफ था । स्वामी जी को धर्म ग्रंथ पढने का बहुत शोक था । स्वामीजी के जीवन मे दो महात्माओ का विशेष प्रभाव पड़ा।
1. स्वामी विवेकानन्द
2. द्वारिकापीठ के शंकराचार्य
स्वामी रामतीर्थजी का संन्यास →
1901 मे प्रोफेसर तीर्थराम हिमालय के धार्मिक स्थलो का भ्रमण करने के लिए निकल गये । अलकनन्दा व भागीरथी के पवित्र संगम पर पहुचकर उन्होने पैदल मार्ग से गंगोत्री जाने का मन बनाया । टिहरी पहुचकर वे शाल्माली वृक्ष के नीचे ठहर गये । मध्यरात्रि मे प्रो. तीर्थराम का आत्मसाक्षात्कार हुआ । उन्होने अपने आप को ईश्वरीय कार्य के लिए समर्पित किया उन्होने द्वारिकापीठ के शंकराचार्य जी की आज्ञानुसार केश व मुछ का त्याग कर संन्यास ग्रहण किया और वहा से अपनी पत्नी व मित्रो को वापस लौटा दिया ।
वेदान्त का प्रचार →
स्वामी रामतीर्थ सभी संसारिक बन्धनो से मुक्त होकर एक संन्यासी के रुप मे घोर तपस्या की । उसी समय उनकी मुलाकात टिहरी नरेश किर्तिशाह से हुई । किर्तिशाह पहले घोर अनास्तिक थे । लेकिन स्वामीजी के सम्पर्क मे आने से पुर्ण आस्तिक व ईश्वरवादी हो गये । टिहरी ने नरेश ने ही स्वामीजी के जापान जाने की व्यवस्था की । उन्होने जापान मे हो रहे विश्वधर्म सम्मेलन मे अपनी ओजस्वी आवाज से हर किसी को मंत्रमुग्ध किया । जापान के बाद वे अमेरिका व मिस्र भी गये । वहा उन्होने भारतीय संस्कृति से लोगो को परिचित करवाया विदेश यात्रा के बाद उन्होने भारत के सभी धार्मिक स्थलो का भ्रमण किया और अपने प्रवचनो से सबको चोकाया ।
अंतिम समय →
स्वामी रामतीर्थ जी सभी यात्राओ के पश्चात पुन: टिहरी लौट आए और दिपावली के दिन उन्होने पवित्र गंगा मैया मे जल समाधि ले ली ।
Very informative.in the year 1901 did Swami Ram Teerth meditate in Dehradun, Uttrakhand for some time.l will be very thankful for the information
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