मन की चंचलता -
कोई भा कार्य वो भले किसी भी प्रकार का क्युं ना हो उसको करने के लिए मन की एकाग्रता की बहुत आवश्यकता होती है , क्योकी यह मन बडा़ ही चंचल है।अर्जुन जैसे धीर वीर पुरूष ने भी मन संयम के प्रसंग के बारे मे गीता मे कहा है : यह मन बडा़ चंचल है , ये बडा़ बलवान है , द्रढ और मथने वाला है इसको रोककर अपने अधीन करना वायु की गति को रोकने के समान अत्यंत कठीन है ।
जब मन से स्वयं ईश्वर हारे --
मन का स्वभाव बंदर की तरह है । मन तो कुछ ही क्षण मे चारो धामो की यात्रा और संपुर्ण ब्रह्माडं के चारो ओर चक्कर लगा देता है । यह इतना बलवान् है की सैकडो़ हाथियो के पांवो मे जंजीरे डाल देना , हजारो सिंहो को पिंजरे मे बंद कर देता है परन्तु इस मन को स्थिर करना आसान नही है । मन ही ने तो काशीपति भगवान विश्वनाथ की समाधि भंग कर दी थी , विश्वामित्र और अगत्सय जैसे महापुरूषो को धराशयी कर दिया था , देवर्षि नारद को मोहनास्त्र से बांध लिया था और भगवान रामचन्द्र जी को भी माता सीता के वियोग मे रूला दिया था ।
मन इतना शक्तिशाली है की वह सब इन्द्रीयो को अपने वश मे करके सारे शरीर मे खलबली मचा देता है । इसे लक्ष्मण जैसे मति , हनुमान जैसे महाबली और भीष्म पितामह जैसे महायोगी ही हरा सकते है । इसी मन के निरोध करने को "योग" कहते है । जो इस मन का निरोध करता है वही ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है । बहुत से महान् पुरूष व शास्त्रो मे मन को स्थिर करने के बहुत से उपाय बताए है ।
मन का निंयत्रण आपको अगली पोस्ट मे बताउंगा
-- बालयोगी
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