भारत के महान संत : महात्मा जड़भरतजी और मृग मे आसक्ति


        महात्मा जड़भरतजी का जीवन परिचय


आज मैं आपको ऐसे महापुरूष ,परमंहस, महान संत,महान योगी,बाल ब्रह्मचारी श्री जडभरतजी के बारे मे बता रहा हुं। ये वे ही जड़भरतजी है जिनके नाम से हमारा देश "भारतवर्ष"या "भारतखण्ड" कहलाता है ।
इनके तीनो जन्मो का मै विवरण कर रहा हुं।
इसमे आपको मोह मुक्ति की सीख मिलेगी ।





पहले जन्म मे राजर्षि भरत के रूप मे -

पहले जन्म मे राजर्षि भरत के रूप मे -  महात्मा जड़भरतजी अपने पुर्व जन्म मे राजर्षि भरत थे । राजर्षि भरत भगवान के परम भक्त थे , वे भक्तियोगी थे , तपोनिष्ठ और विरक्त थे । अगणित 

 वर्षो तक संसारिक भोग भोगने के बाद इन्होने सन्यास ले लिया और पुलह मुनि के आश्रम मे आकर रहने लगे । वे गण्डकी नदी के पवित्र तट पर बैठ कर भगवान का जप किया करते थे । एक दिन वे नित्य की तरह ही नदी के तट पर बैठ कर जप कर रहे थे , उन्होने देखा की एक हरिणी नदी तट पर पानी पी रही थी । वह अपनी टोली से बिछुड़ गयी   थी । सिंह के दहाड़ से भयभीत ने एक गुफा मे जाकर प्राण त्याग किया । इस दृश्य से उनका ह्दय द्रवित हो गया और उन्होने मृग के बच्चे को लेकर अपने आश्रम आ गये । 


मृग के बच्चे से मोह -  राजर्षि ने उस मृग के बच्चे का पालन-पोषण बडे़ ही प्रेम से किया । उस मृग शावक मे उनकी आसक्ति बढ गयी की वे दिन रात उस के बारे मे ही सोचते रहते थे । उन्होने प्रभु भक्ति करनी भी कम कर दी । उनका पुरा समय मृग शावक की देखभाल मे ही निकल जाता था । एक दिन अचानक वो मृग गायब हो गया और वे बहुत दुखी हो गये ।

जड़भरतजी का मृग योनि मे जन्म - 

  मृग की भावना विशेष रूप से परिपुष्ट होने के कारण उन्होने अपना दुसरा जन्म मृग योनि मे पाया । उनको अपने पुर्व जन्म के मृग आसक्ति के बारे ज्ञात होने के कारण उनमे वैराग्य का उदय हुअा । शालाग्राम क्षेत्र मे आकर ही निवास किया था । मृत्युकाल आने पर पवित्र गण्डकी मे अंतिम स्नान करके मृगदेह का त्याग किया ।

जड़भरतजी का अंतिम जन्म और आत्मसाक्षाकार-

इनका अगला जन्म जड़भरत के रूप मे पवित्र ब्राह्मण कुल मे हुआ । इनका जन्म आगरिच गौत्र मे हुआ । इनके पिता इन्हे बहुत मानते थे । ये जन्मजात सांसारिक मोह-माया से विरक्त थे । स्वजनो को अपने से दुर ही रखते थे । उन्हे पुर्व जन्म की मृग आसक्ति का स्मरण था । इनके पिता इन को वेदाध्यन करवना चाहते थे लेकिन वे गायत्री मंत्र जाप भी ठीक से नही कर पाते थे । कुछ समय बाद इनके पिता का देहान्त हो गया और इसके बाद जड़भरत और उनकी छोटी बहन को सौतेली माँ को सौपकर इनकी   माता का भी देहान्त हो गया ।
माता पिता के देवलोक गमन के बाद जड़भरत को अपने आत्मज्ञान परिपक्व करने का सुनहरा अवसर मिल गया ।

महात्मा जड़भरतजी का स्वभाव - 

वे अब पुर्ण रूप से निर्बन्ध हो गयमाता का भी देहान्त हो गया ।
माता पिता के देवलोक गमन के बाद जड़भरत को अपने आत्मज्ञान परिपक्व करने का सुनहरा अवसर मिल गया ।े थे । वे सदा आत्मचिंतन मे ही लगे रहते थे । संसार का नश्वर और मायिक रूप उन्हें अपनी और आकृष्ट नही कर सका । वे सदा मौन रहते थे ।यदि कोई व्यक्ति भला-बुरा कहता तो वे गवारो की तरह उतर देते थे । वे हमेशा मैले कुचैले वस्त्र ही पहना करते थे , इसलिए लोग उनके समीप बैठने से संकोच करते थे । वे सम्मानको विष और अपमान को अमृत मानते थे । उनकी दृढ धारणा थी की ऐसा करने से वे व्यक्ति निर्विघ्न योगसाधना मे आगे बढेंगे । वे जंगली फलो को खाकर ही अपनी भुख शान्त करते थे । माता पिता की मृत्यु के बाद उनको भाईयो ने उनको खेती बाड़ी का काम करवाना शुरू किया तथा उनके द्वारा दिये गये सडे़ गल्ले अन्न से ही वे अपनी भुख शान्त करते थे। वे डट कर खेतो मे बैल कि तरह काम किया करते थे भोजन मात्र ही उनका वेतन था  । लोग थोडी़ ही मजदुरी देकर अपने काम करवा लेते थे । वे सदा ही आत्मानंद मे मग्न रहते थे । भुमि पर सोते और कई कई महिनेसे स्नान करते थे , देह पर मैल जमे रहने का इनको ख्याल ही नही रहता था , मैला वस्त्र और मैला यज्ञोपवित ही धारण करते थे । इनके भाईयो ने इनको खेती बाडी़ मे लगा दिया । आत्मचिंतन ही उनका परमधर्म था ।


महात्मा जड़भरतजी से जुडे़ प्रसंग -- 

एक बार लुटैरो के सरदार ने संतान प्राप्ति के लिए भद्रकाली को नरबलि देने का संकल्प लिया । जो व्यक्ति बलि के लिए चुना गया था वह भाग गया । लुटेरे उस व्यक्ति को बडी़ तत्परता से ढुंढ रहे थी की अंधेरी रात मे खेत की रखवाली कर रहे जड़भरत को देखा ।
लुटेरो ने जड़भरत से कहा "चलो" उस उन्मत अवधुत ने भी बात दोहराई "चलो"। उन्होने निश्चित स्थान ले जाकर जड़भरत को स्नान कराया , धुप दीप गन्ध से उसकी पुजा की , गले मे पुष्पो की माला डाली । फिर उनको भद्रकाली के सामने बिठाया गया । पुरोहित ने जैसे ही बलि देने के लिए तलवार बाहर निकाली , भद्रकाली की मुर्ति साकार हो गयी, उन्होने भंयकर शब्दो मे गरज कर पुरोहित के हाथ से तलवार छीन ली , क्षणभर मे भद्रकाली ने दुष्टो का संहार करके परमंहस जड़भरतजी के प्राणो की रक्षा की । जड़भरतजी को तो ऐसा लगा की कुछ हुआही नही । वह पहले की तरह अपने काम मे लग गये । आत्मोपासक को कभी बल से पराजित नही किया जा सकता । आत्मबल की ही सदा विजय होती है , आत्मा मे सत्य का अधिवास होता है , सत्यसंबधित आत्मा को हराना असंभव है ।


इतने के साथ मे अपने शब्दो को विराम देता

                           

 है                                 

   मुझे आशा  हमारे भारत मे ऐसे संत महात्मा फिर जन्म लेंगे ।               

                                    -- बालयोगी

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